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जन्मस्थान... शामली जिला शामली उत्तर प्रदेश, कर्मस्थान..... वर्तमान में लखनऊ

रविवार, नवंबर 21, 2010

यादों के बहाने से

 बदलाव
बात पुरानी है मेरे बचपन की तब गांव में रहते थे टेलीविजन नहीं था केवल रेडियो था तब विविध भारती पर एक गीत बहुत लोकप्रिय था ये गोटेदार लहंगा......... इसी गीत की एक पंक्ति थी चुनरी बन जाये तेरी मेरे रूमाल से जिसे सुनकर मेरी बाल बुद्घि बड़ा आश्चर्य करती थी भला छोटे से रूमाल से चुनरी कैसे बन सकती है।
आज समझ आता है कि गीतकार ने दरअसल वक्त से कहीं आगे का गीत लिखा था। आज की पीढ़ी इस गीत को सुनकर बिलकुल आश्चर्य नहीं करेगी क्यों कि आज की तथाकथित रोलमाडल कन्याओं की चुनरी तो क्या पूरी वेशभूषा एक रूमाल से बन सकती है।
यादों के बहाने से आज इतना ही
आपके विचारों का स्वागत है।

रविवार, अक्तूबर 17, 2010

विजयदशमी

युग चाहे कोई भी हो यही रही है रीत सदा
हार बुराई की होती है अच्छाई की जीत सदा


सबको विजयदशमी की शुभकामनाएं

सोमवार, सितंबर 20, 2010

जाने कहां गया वो मौसम

आज कार्यालय में हिन्दी सप्ताह समापन समारोह के अन्तर्गत स्वरचित हिन्दी कविता पाठ प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था। आयोजन में राजभाषा अधिकारी श्री राज बहादुर सिंह मुख्य अतिथि तथा कवि श्री मुकुल महान श्री श्यामल मजुमदार निर्णायक थे और मेरी इस कविता को प्रथम पुरस्कार के लिये चुना गया
कविता प्रस्तुत है

जाने कहां गया वो मौसम जब धरती मुस्काती थी
चहक चहक चिड़िया आंगन में मीठे गीत सुनाती थी
जाने कहां गया वो मौसम जब धरती मुस्काती थी

कड़वा है अब मीठा पानी जो अमृत कहलाता था
सूना है वो घाट जहां पर हर राही रूक जाता था
बिन मैली नदियां इठलाती जब सागर तक जाती थी
जाने कहां गया वो मौसम जब धरती मुस्काती थी

जहर घुला है अब वायु में हुई बहारें गुम देखो
आधी हो गई सासें सबकी खूब तमाशा तुम देखो
एक समय था यही हवाएं खुशबु सी बिखराती थी
जाने कहां गया वो मौसम जब धरती मुस्काती थी

धुआं उगलती चिमनी हैं और पेड़ बेचारे मरते हैं
बेघर पंछी याद आज भी उस मौसम को करते हैं
जब हंसती थी हर डाल पेड़ की हर पत्ती इतराती थी
जाने कहां गया वो मौसम जब धरती मुस्काती थी

दौड़ तरक्की की अंधी है इसमें बस पछतावा है
गगन चूमती मीनारें तो केवल एक छलावा है
आज नहीं आती पहले तो बात समझ ये आती थी
जाने कहां गया वो मौसम जब धरती मुस्काती थी

वक्त अभी भी है जगने का मानव आखें खोल जरा
ममता की मूरत है धरती फिर से मां तो बोल जरा
भूल गया मानव ये धरती माता भी कहलाती थी
जाने कहां गया वो मौसम जब धरती मुस्काती थी

 दीक्षित

गुरुवार, सितंबर 09, 2010

हौसला

मेरी डायरी में कुछ पंक्तियां लिखी हैं। तारीख पडी है 3 जून 2000, आज सोचता हूं दस वर्ष से गुमनाम शब्दों को सबके साथ बांटा जाए


समंदर का किनारा और मैं
रेत पर यूं ही चली थी उंगलियां
खिंच गई थी कुछ लकीरें
लिखी गई कोई इबारत
उस इबारत पर बना बैठा मैं
एक सपनों की इमारत
खुश तो बहुत था मैं
देख कर तकदीर अपनी
कि अचानक
एक लहर आई
और मिट गई सारी लकीरें
गिर गई पूरी इमारत
क्या मैं अब उदास हो जाऊं
नहीं
फिर से लिखुंगा मैं
पत्थरों पर
हौसलों की छेनियों से
उस इबारत को
फिर कोई भी लहर
न मिटा सकेगी उसे
मैं अब भी खुश हूं

बुधवार, सितंबर 01, 2010

आज का दौर

एक वर्ष पूर्व अर्थात 1 सितं 2009 को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान नई दिल्ली में हिन्दी मास के अंतर्गत स्वरचित हिन्दी गीत कविता पाठ प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था। मैं उस समय वहां अनुसंधान एसोसिएट के रूप में कार्यरत था । मैने वहां अपने एक गीत का पाठ या कहुं तो गायन किया था क्यों कि मैने इसकी धुन बनाकर तरन्नुम में सुनाया था। धुन कैसी है इस पर चर्चा नहीं करूंगा क्यों कि आत्म प्रशंसा उचित नहीं होती। खैर प्रतियोगिता में वरिष्ठ हिन्दी सेवी डा सरोजिनी प्रीतम तथा श्री मनीषी निर्णायक थे और मेरे इस गीत को प्रथम पुरस्कार के लिये चुना गया था ।
गीत प्रस्तुत है

आज का ये दौर जाने कैसा दौर है
समझे जिसको अपना निकले कोई और है

आदमी ही आदमी से देखो डर रहा
एक दूसरे के हाथों आज मर रहा
आदमी ने आदमी की चाल छोड दी
भेडियों ने आदमी की खाल ओढ ली

चारों ओर आदमी हैं पर ये शोर है
समझे जिसको अपना निकले कोई और है

जिन्दगी में किसपे एतबार हम करें
किससे रूठ जायें किससे प्यार हम करें
रो रहे हैं और आंसू पी रहे हैं सब
अपने अपने वास्ते ही जी रहे हैं सब

रात काली लम्बी और दूर भोर है
समझे जिसको अपना निकले कोई और है

तैरता रहूं मै चाहे डूब जायें सब
ऐसी सोच आदमी की हो गई है अब
खो गई इन्सानियत इन्सान रह गये
घर तो ढह गये हैं बस मकान रह गये

इतना झूठ है न कोई ओर छोर है
समझे जिसको अपना निकले कोई और है

जाने कब तलक ये दौर यूं रूलायेगा
अच्छा दौर एक दिन जरूर आयेगा
कर लो सब दुआ के चला जाये दौर ये
बीते रात काली और आ जाये भोर रे

पर अभी तो सपनों में ही ऐसा दौर है
समझे जिसको अपना निकले कोई और है

रविवार, अगस्त 22, 2010

ज़िन्दगी

रूठती मनती हुई सी ज़िन्दगी
मुठ्ठियों से रेत सी छनती हुई सी ज़िन्दगी

ज़िन्दगी से पूछता हूं ज़िन्दगी तू कौन है
ज़िन्दगी ही कह रही है ज़िन्दगी तो मौन है

ये कभी पत्थर कभी है रूई सी ज़िन्दगी
दोस्तों बेशर्म है छुइ मुई सी ज़िन्दगी

है कभी पतझड़ कभी है बाग सी ये ज़िन्दगी
बर्फ का टुकड़ा है यारों आग सी ये ज़िन्दगी

इक सवेरा है कभी है रात सी ये ज़िन्दगी
मौन रहते हैं जो उनकी बात सी ये ज़िन्दगी

है कभी कांटा कभी है फ़ूल सी ये ज़िन्दगी
याद करता हूं तो लगती भूल सी ये ज़िन्दगी

ये कभी आंधी कभी पुरवाई सी ये ज़िन्दगी
भीड़ इतनी है लगे तन्हाई सी ये ज़िन्दगी

ये कभी मंजिल कभी इक रास्ता है ज़िन्दगी
भूली बिसरी याद रहती दास्तां है ज़िन्दगी

दीक्षित

शनिवार, अगस्त 14, 2010

कैद में हूँ

कैद में हूं पर निकलना चाहता हूं
एक पर्वत हूं पिघलना चाहता हूं
लड़खड़ाता चल रहा था आज तक मैं
रास्तों पर अब संभलना चाहता हूं

लक्ष्य है जिस ओर मुड़ना चाहता हूं
अपनी मंजिल से मैं जुड़ना चाहता हूं
हौसलों के पंख उग आये हैं अब
आसमानों में मैं उड़ना चाहता हूं

दुख के सागर से मैं हटना चाहता हूं
सुख की बस्ती में मैं बसना चाहता हूं
सिसकियां अब बात कल की हो रही हैं
जोर से यारों मैं हंसना चाहता हूं

ख्वाब हैं जो सच बनाना चाहता हूं
अपनी ताकत मैं बताना चाहता हूं
मौन थी जो आज तक दिल में मेरे
एक धुन वो गुनगुनाना चाहता हूं

दीक्षित

गुरुवार, अगस्त 05, 2010

यूं ही

अपने गम पीता रह गया
मैं तनहा रीता रह गया
दुनिया तो कल में चली गई
मैं कल में जीता रह गया
यादों की उस परछाई में
उस बगिया उस अमराई में
जो साथ गुज़ारा था हमने
उस पल में जीता रह गया
में कल में जीता रह गया