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जन्मस्थान... शामली जिला शामली उत्तर प्रदेश, कर्मस्थान..... वर्तमान में लखनऊ

रविवार, अक्तूबर 18, 2015

बचपन में मेरे दादा जी एक पौराणिक कथा मुझे सुनाया करते थे....................
सौ अश्वमेध यज्ञ करने पर इन्द्र का पद प्राप्त होता था, एक राजा ने सौ अश्वमेध करने का निश्चय किया. (इस यज्ञ में एक घोडा छोड़ दिया जाता है जिस - जिस राज्य में वह घोडा जाता है वह राज्य यज्ञ करने वाले राजा की दासता स्वीकार कर लेता है यदि कोई नहीं मानता तो उसे युद्ध में हरा कर आयोजक राजा अपने आधीन कर लेता है)
तो साहब उस राजा ने कुल निन्यानबे यज्ञ पूर्ण कर लिए| सोवें यज्ञ के लिए जब घोडा छोड़ा गया तो घोडा गायब हो गया, राजा ने जाँच कराई तो पता चला कि अपना पद छिन जाने के डर से तत्कालीन इन्द्र ने वह घोडा चुरा लिया है ताकि सौ अश्वमेध यज्ञ पूर्ण न हो सकें | यह जानकर आयोजक राजा ने कहा कि अनेकों युद्ध लड़कर, इतने परिश्रम के बाद इन्द्र का पद प्राप्त हो और फिर भी चोरी की आदत न जाये तो ऐसे पद की मुझे कोई इच्छा नहीं...............

आज जब बड़े बड़े पदों पर बैठे नौकरशाहों और नेताओं को भ्रष्टाचार और घोटालों में लिप्त देखता हूँ तो ये कथा बहुत याद आती है

रविवार, सितंबर 27, 2015

कंक्रीट के जंगल में

पिछले कुछ महीनों से घर के आसपास के इलाके में बंदरो का झुण्ड दिखाई पड़ता है ........एक दिन बेटे ने मुझसे पूछा कि इन बंदरों को तो जंगल में रहना चाहिए ये यहाँ हमारे घरों में क्यों आते हैं ....
मैंने उसे बताया ये जो घर आज बने हैं जंगलों को काट कर ही बने हैं और दरअसल ये बन्दर हमारे घरों में नहीं आ रहे हम इंसानों ने इनके घरों पर कब्ज़ा जमा लिया है......
..............ये बात इस कविता की प्रेरणा बनी और पिछले सप्ताह कार्यालय में हिंदी पखवाड़े की कविता प्रतियोगिता में मुझे इस कविता ने पुरस्कार भी दिलवा दिया पर इंसान जंगल काट कर कंक्रीट का जंगल क्यूँ बढ़ा रहा है ये सवाल तो सवाल ही रह गया | खैर....... कविता आप भी पढ़िए...

रविवार, सितंबर 20, 2015

घोर अमावस की रातों में

मेरी इस कविता को हिंदी सप्ताह समापन समारोह (2013) में प्रथम पुरस्कार मिला था | आप भी पढिये :-
घोर अमावस की रातों में, मैं दीवाली खोज रहा हूँ |
शहर पत्थरों का है लेकिन, मैं हरियाली खोज रहा हूँ ||
क्या जाने सूखे बादल में, कोई अमृत कण मिल जाये |
दिशा बदल दे जो जीवन की, ऐसा कोई क्षण मिल जाये ||
अमृत जिसमें भरकर पी लूँ, ऐसी प्याली खोज रहा हूँ
घोर अमावस की रातों में, मैं दीवाली खोज रहा हूँ
ऊँचे महल रहन वालों में, कुछ दिल वाले भी मिलते हैं |
भटकाने वाले रस्तों में, मंजिल वाले भी मिलते हैं ||
जाम लगी सड़कों पर मैं तो रस्ता खाली खोज रहा हूँ
घोर अमावस की रातों में मैं दीवाली खोज रहा हूँ
तेज हवा के झोंको में भी, कुछ पत्ते तो रह जाते हैं |
कठिनाई में कैसे जीना, ये संदेशा कह जाते हैं ||
आंधी तूफानों में मैं तो रुत मतवाली खोज रहा हूँ
घोर अमावस की रातों में मैं दीवाली खोज रहा हूँ
मुंदी मुंदी सोती आँखों में, मीठे कुछ सपने भी होंगे |
गैर नहीं हैं सब दुनिया में, ढूढों कुछ अपने भी होंगे ||
अपनों को पहचान सकूँ मैं, अब कंगाली खोज रहा हूँ
घोर अमावस की रातों में मैं दीवाली खोज रहा हूँ
चाहे बंजर धरती हो पर, कुछ अंकुर जीवन के होंगे |
लिपटे हों विषधर तो क्या है, पेड़ तो वो चन्दन के होंगे ||
महका दे जीवन की बगिया ऐसा माली खोज रहा हूँ
घोर अमावस की रातों में मैं दीवाली खोज रहा हूँ
                                              [©ckdixit]

शनिवार, अगस्त 29, 2015

राजकपूर एक फिल्म बना रहे थे…..फिल्म में कहानी का एक मोड़ ऐसा था ...नायिका की शादी नायक से नहीं किसी और से हो रही है...नायिका भोली है वो नहीं जानती कि नायक उसे चाहता है...इस सिचुएशन के लिए राजकपूर चाहते थे कि एक गीत नायिका शादी के पहले दिन गा रही है ...यानि एक शादी गीत.
इस गीत के लिए पंडित नरेंद्र शर्मा ने राजकपूर को गीतकार संतोष आनंद का नाम सुझाया. राजकपूर ने संतोष आनंद के साथ मीटिंग की, उनको सिचुएशन बताई कि नायिका इस गीत में अपनी सखियों, अपनी माँ और नायक को संबोधित कर रही है.........कुल मिला कर तीन तरह के भाव गीत में चाहिए थे............यहाँ एक और रोचक बात जानने लायक है, राजकपूर जब युवा थे तो उनकी शादी की बात एक लड़की से चल रही थी, राज कपूर जब उसके घर गए तो उसने उनको अंगूठा दिखा कर चिढाया था (बचपने में).............ये बात राजकपूर की स्मृति में थी और इसे भी वो अपने इस गीत में इस्तेमाल करना चाहते थे,  उन्हें गीत में कुछ शब्द ऐसे चाहिए थे जो नायिका अंगूठा दिखाते हुए गा सके (फिल्म बाबी में डिम्पल का बेसन सने हाथों से दरवाजा खोलने वाला सीन भी राजकपूर के एक व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित था)
खैर सारी बात समझने के बाद संतोष आनंद ने विदा ली और इस पर दिमाग लगाने लगे....अचानक उन्होंने दिल्ली की फ्लाइट पकड़ी और अपने परिवार के पास आ गए.
रात्रि के भोजन के बाद उन्होंने अपनी छोटी सी बिटिया को गोद में लिटाया और साथ ही कागज पर कलम भी चलने लगी....
सुबह हुई उन्होंने फिल्म के संगीतकार लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल को फोन करके कहा कि मैं आ रहा हूँ, गीत तैयार है.
मुबई में सब लोग बैठे... संतोष आनंद जी ने गीत सुनाना शुरू किया.... जैसे ही उन्होंने अंगूठा हिलाते हुए गाया...‘के तेरा यहाँ कोई नहीं’....राजकपूर ने संतोष आनंद जी का हाथ चूम लिया. लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल
ने शानदार धुन तैयार की और लता जी ने गाकर इस गीत को अमर कर दिया.
दोस्तों आप समझ ही गए होंगे कि मैं बात कर रहा हूँ लता जी द्वारा गाये प्रेमरोग फिल्म के सुपरहिट गीत ...ये गलियां ये चौबारा की.....इसके तीन अंतरे अलग अलग संबोधन के साथ लिखे गए हैं.
आशा है आपको इस गीत के बनने की ये कहानी अच्छी लगी होगी और अब आप इस गीत को एक नए नजरिये के साथ सुनेंगे................अब तो फिल्म जगत में सिर्फ व्यवसायिकता हावी है समर्पण कहीं खो गया है.

(कई वर्ष पहले एक मैगजीन में पढ़े श्री राजकपूर के एक इंटरव्यू तथा हाल ही में श्री संतोष आनंद के एक न्यूज चैनल पर प्रसारित एक इंटरव्यू पर आधारित)